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देखिये आपने बडा ही महत्वपूर्ण सवाल किया है और इसका जवाब लगभग हर भारतीयो को जानना चाहिये। खासकर उन लोगो को जो " देदी हमे आजादी बिना खड्...

Saturday, June 6, 2020

रामायण- एतिहासिक और वैज्ञानिक प्रमाण

आपका बहुत ही अच्छा प्रश्न है बंधु। आपके इस प्रश्न का साहित्यक/एतिहासिक प्रमाण मै आपको देने का प्रयत्न करूँगा। आशा है अधिक से अधिक लोग लाभान्वित होंगे। आपने एक गलती की है प्रश्न मे पहले वो सुधारिये, त्रेतायुग 12,96,000 वर्ष का था, द्वापरयुग 8,64,000 वर्ष का था।

पहले तथय पर आते है, जिस सिद्धान्तो या थ्योरी के बलबूते आज के वैज्ञानिक पुरातत्व का आकलन कर रहे है वो कपोल कल्पनाओ पर आधारित है। हम काल गणना 0 से लेकर चले है। जैसे आज सृष्टि निर्मित हुए 1,96,08,53,121, वर्ष हो चुके है। लेकिन पाश्चात्य वैज्ञानिक -ive भी जाते है। जैसे इन्होने काल गणना ईसा के जन्म से निर्धारित की। लेकिन जब इन्होने देखा कि भारत का इतिहास इससे भी पुराना जा रहा है तब इन्होने AD( anno Domini) ईसा के बाद, BC (Before christ)ईसा पूर्व की कल्पना गढी। भारत मे इतिहासकार अधिकतर वामपंथी है। ये एक ऐसा समूह है जो सनातन की अस्तित्व को मानता ही नही है। विदेशी मार्क्स और लेनिन इनके आदर्श रहे है। ये इतिहासकार सुनी सुनाई बाते लिखते रहे है कभी कुछ धरातल पर उतरकर नही लिखा। लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट ने साख्ष्य मांगे तब इस पाश्चात्य एवं वामपंथियो द्वारा समर्थित इतिहास की पोल पट्टी खुली।

आज से 5550 वर्ष पूर्व तो महाभारत का ही युद्ध हुआ था। जो की द्वापरयुग के अंत मे हुआ था। जबकि रामायण त्रेतायुग मे हुई थी।

पहले मै रामायण के काल पर आता हूँ। देखिये बंधु रामायण का काल वैवस्वत, मन्वंतर के 28 वी चतुर्युगी के त्रेतायुग का है। वैदिक गणित/विज्ञान के अनुसार ये सृष्टि 14 मन्वंतर तक चलती है। प्रत्येक मन्वंतर मे 71 चतुर्युगी होती है। 1 चतुर्युगी मे 4 युग- सत,त्रेता,द्वापर एवं कलियुग होते है। अब तक 6 मन्वंतर बीत चुके है 7 वाँ मन्वंतर वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है।

देखिये बंधु, सतयुग 17,28,000 वर्षो का एक काल है, इसी प्रकार त्रेतायुग 12,96,000 वर्ष, द्वापरयुग 8,64,000 वर्ष एवं कलियुग 4,32,000 वर्ष का है। वर्तमान मे 28 वी चतुर्युगी का कलियुग चल रहा है। अर्थात् श्रीराम के जन्म होने और हमारे समय के बीच द्वापरयुग है। जो कि उपरोक्त 8,64,000 वर्ष का है। अब आगे आते है कलियुग के लगभग 5200 वर्ष बीत चुके है। ऐसा मानना था महान गणितज्ञ एवं ज्योतिष वराहमिहिर जी का। उनके अनुसार

असन्मथासु मुनय: शासति पृथिवी: युधिष्ठिरै नृपतौ:

षड्द्विकपञ्चद्वियुत शककालस्य राज्ञश्च:

जिस समय युधिष्ठिर राज्य करते थे उस समय सप्तऋषि मघा नक्षत्र मे थे। वैदिक गणित मे 27 नक्षत्र होते है और सप्तऋषि प्रत्येक नक्षत्र मे 100 वर्ष तक रहते है।ये चक्र चलता रहता है। राषा युधिष्ठिर के समय सप्तऋषियो ने 27 चक्र पूर्ण कर लिये थे उसके बाद आज तक 24 चक्र और हुए कुल मिलाकर 51 चक्र हो चुके है सप्तऋषि तारा मंडल के। अत: कुल वर्ष व्यतीत हुए 51×100= 5100 वर्ष। राजा युधिष्ठिर लगभग 38 वर्ष शासन किये थे। तथा उसके कुछ समय बाद कलियुग का आरम्भ हुआ अत: मानकर चलते है कि कलियुग के कुल 5155 वर्ष बीत चुके है।

इस प्रकार कलियुग से द्वापरयुग तक कुल 8,64,000+5155=8,69,155 वर्ष।

श्रीराम का जन्म हुआ था त्रेतायुग के अंत मे। इस प्रकार कम से कम 9 लाख वर्ष के आस पास श्रीराम और रामायण का काल आता है।

अब तथ्य पर आते है।

रामायण सुन्दरकांड सर्ग 5, श्लोक 12 मे महर्षि वाल्मीकि जी लिखते है-

वारणैश्चै चतुर्दन्तै श्वैताभ्रनिचयोपमे

भूषितं रूचिद्वारं मन्तैश्च मृगपक्षिभि:||

अर्थात् जब हनुमान जी वन मे श्रीराम और लक्ष्मण के पास जाते है तब वो सफेद रंग 4 दांतो नाले हाथी को देखते है। ये हाथी के जीवाश्म सन 1870 मे मिले थे। कार्बन डेटिंग पद्धति से इनकी आयु लगभग 10 लाख से 50 लाख के आसपास निकलती है।

वैज्ञानिक भाषा मे इस हाथी को Gomphothere नाम दिया गया। इस से रामायण के लगभग 10 लाख साल के आस पास घटित होने का वैज्ञानिक प्रमाण भी उपलब्ध होता है।

Tuesday, June 2, 2020

सीता माता का जन्म

महाभारत के युद्ध में अच्छे-अच्छे विद्वानों के मारे जाने के पश्चात् एक घोर वाममार्ग का समय आया। जिसमें स्वार्थी, अनाचारी लोगों ने सुरापान, मांसाहार तथा व्यभिचार को धर्म ठहराया और प्राचीन ऋषि-मुनियों पर सुरापान, मांसाहार व व्यभिचार के दोषारोपण करने के लिए भागवतादि पुराणों की रचना की। इन पुराणो में जहाँ ऋषियों पर दुराचार सम्बन्धी दोष लगाये गये वहाँ उनकी उत्पत्ति को भी घृणितरूप से जनता के सामने उपस्थित किया। 

यदि आप पुराणों को पढ़ें तो आपको पता लगेगा कि पुराणों ने किसी की उत्पत्ति को सीधे ढंग से पेश नहीं किया। जहाँ इन वामपन्थी लोगों ने पुराणों का निर्माण किया वहाँ प्राचीन ग्रन्थों में भी मांस, व्यभिचार आदि के श्लोक घड़कर मिला दिये और पूज्य महात्माओं की उत्पत्ति को घृणितरूप से वर्णन करनेवाले श्लोक भी प्राचीन ग्रन्थों में मिला दिये। चूंकि इन धूर्त, पाखण्डी, वाममार्गी पौराणिक लोगों ने महारानी सीताजी की उत्पत्ति के बारे में भी वाल्मीकि रामायण में निम्न प्रकार के श्लोक बनाकर सम्मिलित कर दिये, जैसाकि जनक ने बताया है – 

      अथ मे कृषतः क्षेत्र लांगलादुत्थिता तत॥१३॥ 

      क्षेत्रं शोधयता लब्धा नाम्ना सीतेति विश्रुता। 

      भूतलादुत्थिता सा तु व्यवर्धत ममात्मजा॥१४॥ 

      [वा॰ रा॰ बाल॰ ६६ / १३ – १४] 

      अर्थ – मेरे द्वारा खेत को जोतने पर मेरे हल की फाली से यह ऊपर को उठ पड़ी॥१३॥ चूंकि वह मुझे खेत को जोतते हुए मिली, अतः उसका नाम सीता प्रसिद्ध हो गया वह मेरी पुत्री पृथिवी से निकली और वृद्धि को प्राप्त हुई॥१४॥ 

      अब सीता की इस उत्पत्ति पर ज़रा विचार कीजिए। प्रथम तो इस प्रकार की उत्पत्ति सृष्टि के नियम के विरुद्ध है, क्योंकि मनुस्मृति अध्याय १ श्लोक ३३ में स्पष्ट लिखा है कि – 

      क्षेत्रभूता स्मृता नारी बीजभूतः स्मृतः पुमान्। 

      क्षेत्रबीजसमायोगात्सम्भवः सर्वदहिनाम्॥३३॥ 

      अर्थ – श्री खेतरूप है और पुरुष बीजरूप है। खेत तथा बीज के मिलने से ही सब शरीरधारियों की उत्पत्ति सम्भव हो सकती है। 

      अतः बिना स्त्री-पुरुष के संयोग के जैवी सृष्टि में किसी भी शरीरधारी की उत्पत्ति असम्भव और सृष्टि-नियम के विरुद्ध है, अतः सिद्ध हुआ कि सीता की उत्पत्ति का इस प्रकार वर्णन करना पौराणिक गप्पाष्टक ही है। दूसरे स्वयं रामायण में भी इसके विरुद्ध प्रमाण मिल जाते हैं जैसाकि जब सीता अनसूया के पास गई और अनसूया ने उसको पतिव्रत धर्म का उपदेश किया तो उत्तर में सीता ने कहा कि –

      पाणिप्रदानकाले च यत्पुरा त्वग्रिसंनिधौ। 

      अनुशिष्टं जनन्या मे वाक्यं तदपि मे धृतम्॥८॥ 

      [वाल्मीकि रामा॰ , अयोध्या स॰ ११८]

      अर्थ – पहले अग्रि के समीप जो मेरा हाथ राम को पकड़ाते हुए मेरी जननी ने मुझे शिक्षा दी थी वह वाक्य भी मैंने धारण किया हुआ है। 

      इस श्लोक में सीता ने स्पष्ट शब्दों में अपनी जननी माता का वर्णन किया है। इससे आगे जब हनुमान्जी सीता से मिलकर लौटने लगे तो सीता ने कपड़े में से खोलकर एक मणि हनुमान् को दी और कहा कि यह राम को दे देना। और मणि देने के पश्चात् सीता ने कहा कि –

      मणिं दृष्ट्वा च रामो वै त्रयाणां संस्मरिष्यति। 

      वीरो जनन्या मम च राज्ञो दशरथस्य च॥२॥ 

      [वाल्मीकि रामा॰ सुन्दर॰ स॰ २८] 

      अर्थ – इस मणि को देखकर राम तीन को याद करेंगे – मेरी जननी को, मुझे और राजा दशरथ को। 

      सीता के इस कथन से भी सीता की जननी माता का होना स्पष्ट सिद्ध है। इससे यह तो सिद्ध है कि सीता की माता और वह भी पालन करनेवाली नहीं अपितु जननी अवश्य थी, किन्तु कथा में गौण होने के कारण उसका स्पष्ट वर्णन रामायण में नहीं आया। अब हम आपको पुराणो से ही अपने पक्ष की पुष्टि के प्रमाण बताते हैं। जब प्रतिपक्षी स्वयं ही हमारी बात का अनुमोदन कर दें तो फिर उनके मिथ्यात्व में क्या सन्देह है। लीजिए शिवपुराण, रुद्रसंहिता, पार्वतीखण्ड अध्याय ३, श्लोक २९ में लिखा है कि – 

      धन्या प्रिया द्वितीया तु योगिनी जनकस्य च। 

      तस्याः कन्या महालक्ष्मीर्नाम्ना सीता भविष्यति॥ 

      अर्थ – दूसरी धन्यभाग्यवाली जनक की स्त्री जिसका नाम योगिनी है उसकी कन्या महालक्ष्मी होगी, उसका नाम सीता होगा।

      ‘जादू वह जो सिर चढ़कर बोले’ यह जनश्रुति पौराणिकों पर ही ठीक घटित होती है। इन सम्पूर्ण प्रमाणों से यह स्पष्ट सिद्ध है कि योगिनी नाम की जनक की स्री थी। उसके गर्भ से ही सीता की उत्पत्ति हुई थी। पौराणिकों ने खेत से सीता का निकलना मिथ्या ही रामायण में मिला दिया। इसी प्रकार से अन्य ऋषि , मनीषियों की उत्पत्ति भी सृष्टि-नियम के विरुद्ध मिथ्या ही पुराणों ने प्रतिपादित की है। सज्जन लोग बुद्धिपूर्वक सच्चाई को ग्रहण करने का प्रयत्न करें।

Monday, May 25, 2020

वेद और विज्ञान

वेद का विषय बहुत लम्बे समय से विवादास्पद रहा है। वेद के प्राचीन प्रामाणिक विद्वान् ऋषि आचार्य यास्क ने अपने वेदार्थ-पद्धति के पुरोधा ग्रन्थ निरूक्त के वेदार्थ के ज्ञाताओं की तीन पीढ़ियों का उल्लेख किया है। 

पहली पीढ़ी वेदार्थ ज्ञान की साक्षात् द्रष्टा थी जिसे वेदार्थ ज्ञान में किञ्चित् मात्र भी सन्देह नही था। (साक्षात्कृत धर्माण, सृषमो बभुवः।) दूसरी पीढ़ी उन वैदिक विद्वानों की हुई जिन्हें वेदार्थ ज्ञान साक्षात् नहीं था, उन्होंने अपने से पुरानी ऋषियों की उस पीढ़ी से जो साक्षात्कृत धर्मार्थी, उपदेश के द्वारा वेदार्थ ज्ञान प्राप्त किया। इस दूसरी पीढ़ी को भी वेदार्थ ज्ञान सर्वथा शुद्ध और अपने वास्तविक रूप में ही मिला
 (ते पुनरवरेभ्योऽसाक्षात्कृत धर्मभ्य उपदेशेन मन्त्रान् सम्प्रादुः।) और तीसरी पीढ़ी उन लोगों की आयी जो उपदेश के द्वारा भी वेदार्थ ज्ञान प्राप्त करने में असमर्थ थी। उन्होंने वेद वेदाग आदि ग्रन्थों का सम्मान किया और उन ग्रन्थों की सहायता से वेदार्थ ज्ञान प्राप्त किया। इस तीसरी पीढ़ी को वेदार्थ ज्ञान साक्षात् रूप में नहीं हुआ अपितु परोक्ष रूप में प्राप्त हुआ। अतः इनका ज्ञान परतः प्रामाण्य ग्रन्थों पर आधारित था, वेद का स्वतः प्रामाण्य ज्ञान तो वेदार्थ को साक्षात् वेद की अन्तःसाक्षी के आधार पर समझने वाले लोगों को था। फिर इन तीनों पीढ़ियों में समय का परस्पर अन्तराल बहुत था। और इस तीसरी पीढ़ी के बाद तो उत्तरवर्ती लोगों को वेद-वेदाग आदि ग्रन्थ जो वेदार्थ के लिये परतः प्रामाण्य के ग्रन्थ हैं, और भी अधिक दुरूह और समझ से दूर हो गये। यास्क के समय तक आते-आते यह परिणाम हुआ कि वेदार्थ अधिकतर ओझल हो गया। विद्वान् वेद का मनमाना अर्थ करने लगे। एक-एक मन्त्र का अर्थ करने की परम्परा १०, ११ प्रकार की चल पड़ी, यह स्वयं यास्क ने लिखा है, ‘‘इति याज्ञिकाः, इति पौराणिंका, इत्यैतिहासिकाः, इति वैयाकरणाः, इत्यन्ये, इन्यपरे, इत्येके”, इन शब्दों में यास्क ने अपने ग्रन्थ निरूक्त में एक मन्त्र की व्याख्या अनेक प्रकार से करने का ब्यौरा दिया है। परिणामस्वरूप वेदार्थ इतना अनिश्चित, विवादास्पद बन गया कि एक सम्प्रदाय वैदिक विद्वानों की इसी कमी का दुरूपयोग और लाभ उठाकर कहने लगा कि वेद जब इतना अस्पष्ट विवादस्पद और अज्ञात है तो वेद के मन्त्र अनर्थक हैं, उसका कोई अर्थ नहीं है (‘‘अनर्थकाः मन्त्रा इति कौत्सः”) यह वेदार्थ के अत्यन्त अन्धकार की स्थिति भी जो यास्क के समय तक थी।            
 यास्क ने वेदार्थ उद्धार का बीड़ा उठाया। सर्वप्रथम यास्क आचार्य ने उन वैदिक शब्दों और वैदिक धातुओं का संकलन अपने निघण्टु में किया जो वेदार्थ के लिये उस समय दुरूह तथा अधिक आवश्यक थे। फिर यास्क ने निरूक्त की रचना की। जिसमें पहले वेदार्थ पद्धति का प्रतिष्ठापन किया। वेद को अनर्थक मानने वाले सम्प्रदाय का उन्हीं की युक्तियों से खण्डन किया, उन्हीं का जूता उन्हीं के सिर पर मारा। यास्क ने उद्घोष दिया कि सब नाम आख्यातज हैं और वेदार्थ करने के लियें वे यौगिक होते हुवे भी किसी एक निश्चितार्थ में रूढ़ हैं, उदाहरणार्थ परिव्राजक, भूमिज इत्यादि जिनको पूर्व पक्षी भी यौगिक मानते हुवे भी योगरूढ़ मानता है, जिससे शब्दों की यौगिक व्युत्पत्ति करने के बावजूद भी मनमाना काल्पनिक अर्थ न किया जा सके। यह उन लोगों के लिये करारा जवाब था जो यौगिक पद्धति पर आक्षेप करके कहते थे कि तृण शब्द का अर्थ केवल तिनका न करके वे सब अर्थ तृण शब्द के होने चाहिये जो भी कुरेदने का काम करते हैं। खैर हमारा यहां यह विषय नहीं है, इस पर हम अन्यत्र विस्तार से लिख चुके हैं (द्र. ले. द्वारा वेदभाष्य पद्धति और स्वामी दयानन्द एक सर्वेक्षण।)         

    यास्क सर्वप्रथम वैदिक विद्धान् थे जिनका लिखित ग्रन्थ न केवल यह कहता है कि वेद में भैतिक विज्ञान है, अपितु वेद की व्याख्या भी इस आधार पर करता है। यास्क ने अपने निरूक्त के प्रारम्भ में ही देवता शब्द की परिभाषा दी जो देवता वेद के प्रत्येक सूक्त  या अध्याय के प्रारम्भ में दिये हुवे होते हैं। ‘‘यास्क ऋषि र्यस्यां देवतायामार्थपत्यमिच्छत् स्तुतिं प्रगुड्.क्ते तद्दैवतः स मन्त्रो भवति” इस यास्कीय परिभाषा के अनुसार देवता उस सूक्त का वर्णनीय विषय होता है जो शीर्षक के रूप् में प्रत्येक सूक्त या अध्याय के प्रारम्भ में वेद में दिया हुआ होता है ताकि पाठक को निश्चय रहे कि अमुक्त मन्त्रों का वर्णनीय विषय अमुक है। यास्क ने समूचे वेदों के अध्याय के आधार पर यह निर्णय दिया कि सभी वैदिक मन्त्रों के देवता अर्थात् वर्णनीय विषय केवल तीन ही हैं, वे या तो पृथ्वी स्थानीय भौतिक विज्ञान अग्नि है, या अन्तरिक्ष स्थानीय भौतिक विज्ञान इन्द्र मेघ या विद्युत आदि हैं, या द्युस्थानीय भौतिक विज्ञान सूर्य है। (र्द्रतिस्त्र एव देवताः इत्यादि) अग्निः पृथ्वीस्थानीय इन्द्रन्तरिक्षास्थानीयः, सूर्यो द्युस्थानीयः। समग्र विश्व मण्डल की सृष्टि (समष्टि) इन्हीं तीन भौतिक भागों में विभक्त है, और वेद इसी समृद्धि के विज्ञान की व्याख्या है जिनमें आत्मा और परमात्मा चेतन तत्व भी समाहित हैं, अतः वेद के मन्त्रों के ये तीन ही विषय या देवता है। निरूक्तकार यास्क ने इस स्थापना के बाद वेद के सभी देवताओं का इन्हीं तीनों भागों में बांट कर इनकी भौतिक वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत की। यहां इस दिशा में रिरूक्त के दो उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ।            

 वेद में ‘असुर’ शब्द सूर्य के विशेषण के रूप में प्रयक्त किया गया है यथा असुरत्व मे कम जिसका शब्दिक अर्थ हुआ कि एकमात्र सूर्य ही असुर हैं। अब यहां ‘असुर’ शब्द का अर्थ बड़ा ही आपत्तिजनक और अनर्थक है जैसा कि साधारणतः समझा जाता है और आधुनिक भाष्यकारों ने किया भी है, जिससे सूर्य असुर कहते हैं। इससे स्पष्ट हुआ कि सूर्य वेद में असुर इसलिये कहा गया क्योंकि वह संसार में प्राणदायक शक्ति है तो वह केवल मात्र सूर्य है। यह कितना महत्वपूर्ण भौतिक विज्ञान का रहस्य वेद में छुपा हुवा है। आज संसार के वैज्ञानिक कह रहे हैं कि संसार में जीवन (प्राणी) तभी तक है जब तक सूर्य है, यदि सूर्य नष्ट होता है तो विश्व में जीवन प्राणी भी समाप्त हो जायेंगे। यह भौतिक वैज्ञानिक तथ्य वेद में बड़े ही सहज भाव से कह दिया गया है। सूर्य से ही सब प्राणी वनस्पति आदि जीवित हैं।             दूसरा उदाहरण ‘वैश्र्वानर’ शब्द का है। वैदिक शब्द ‘वैश्र्वानर’ का क्या अर्थ है? यह यास्क के समय बड़ा विवादास्पद बन गया था। अतः यास्क ने निरूक्त में प्रश्न उठाया ‘अथ को वैश्र्वानर?’ इसका समाधान भी यास्क ने इस शब्द की व्युत्पत्ति से किया है। वैश्र्वानरः की व्युत्पत्ति है ‘‘विश्र्वानराज्जायते इति वैश्र्वानरः’’ अर्थात् विश्र्वानर से पैदा होने वाले को वैश्र्वानरः कहते हैं। विश्र्वानरः का अर्थ है सूर्य। सूर्य से साक्षात् क्या वस्तु उत्पन्न होती है इसका परीक्षण यास्क ने वैज्ञानिक प्रयोग द्वारा किया। यास्क ने कहा कि एक आतिशी शीशे का एक भाग सूर्य की ओर रखो और उसके दूसरी तरफ से सूर्य की किरणों को गुजारने दो। जिधर सूर्य की किरणें गुजर रही हैं उधर किरणों के समक्ष सूखा गोबर (शुष्क गोमय) ऐसे रखो कि सूर्य की किरणें उस गोबर पर पड़े। थोड़ी देर बाद उस गोबर में धुआं क उठेगा और आग पैदा हो जायेंगी। यह अग्नि ही वैश्र्वानर है क्योंकि यह विश्र्वानर अर्थात् सूर्य से पैदा होती है। इस प्रकार यास्क ने यह भौतिक वैज्ञानिक तथ्य स्थिर किया कि समूची पार्थिव अग्नि वैश्र्वानर है क्योंकि यह सूर्य से पैदा होती है। यही आज की सौर ऊर्जा (Solar Energy) है जिसे आज के वैज्ञानिक अपनी बहुत बड़ी उपलब्धि मानते हैं। यही तथ्य यजुर्वेद के प्रथम मन्त्र में ही कह दिया गया जिसका देवता सविता है ‘‘इषे त्वोज्र्जे त्वा’’ अर्थात् हे सूर्य हम तेरा उपयोग ऊर्जा शक्ति की प्राप्ति के लिये करें।          
   यह भौतिक वैज्ञानिक तथ्य ब्राह्मण ग्रन्थ और पूर्व मीमांसा के याज्ञिक दर्शन में भी भरे पड़े हैं। ब्राह्मण ग्रन्थों में कहा गया है ‘‘अग्नीषोमी यमिन्द्रं जगत’’ यह संसार अग्नि और सोम दो भौतिक शक्तियों से निर्मित है। यही अग्नि और सोम आज की ऋणात्मक और धनात्मक, सरकार और नकारात्मक (Positive और Negative) शक्तियाँ हैं। यही वे दो धुरी हैं जिन पर आज का कम्प्यूटर विज्ञान केन्द्रित है जिसका आधार (Binary System) (द्विधुरीय पद्धति) है। पूर्व मीमांसा का समग्र यज्ञ विज्ञान इसी दर्शन पर आधारित है। उदाहरणार्थ वर्षा की आवश्यकता होने पर वर्षा करवाने के लिये वर्षेष्टि याग जो इसी वैज्ञानिक ज्ञान पर आधारित है कि वर्षा करवाने वाली भौतिक शक्तियों को कैसे वृष्टि-अनुकूल वातावरण पैदा करने के लिये यज्ञ द्वारा आवर्जित किया जाये।          

   भारत कृषि प्रधान देश होने के कारण अतिवृष्टि और अनावृष्टि की समस्या जो कृषि को एकदम सीधे विनाशकारी रूप से प्रभावित करती है, का समाधान ढूंढने के लिये बड़ी वैज्ञानिक खोजें प्राचीनकाल में हुई थीं। इन्हीं समस्याओं का समाधान, वृष्टियाग है जो आज भी देश की आर्थिक दशा जिसका आधार कृषि है को सुधारने के लिये अत्यन्त उपयोगी और प्रासगिक है। वेद में इसीलिये एक पूरा सूक्त कृषि सूक्त है। प्राचीनकाल में कृषि विज्ञान पर भारत से बढ़ कर वैज्ञानिक खोज और किसी देश में नहीं हुई। कौटिल्यार्थ शास्त्र इसी के विस्तार से भरा पड़ा है। आज तो इसके साथ पर्यावरण की समस्या भी जुड़ गई है जो कृषि और छोटे वृक्षों को नष्ट करने तथा यज्ञ-याग आदि के अभाव के कारण पैदा हुई हैं।             इसी प्रकार अन्य याग हैं जो भौतिक पदार्थों की प्राप्ति के लिये की गई कामनाओं की पूर्ति के निमित्त किये जाते हैं। इसीलिये पूर्व मीमांसा में महर्षि जैमिनि ने यज्ञ की परिभाषा दी है ‘‘देवतोद्देश्येन द्रव्यत्यणः याग’’।             

वैदिक विज्ञान की यह धारा वैदिक दर्शनों में विशेष विषय के रूप में निष्पन्दित हुई जिसमें न्याय और वैशेषिक दर्शन में भौतिक विज्ञान के (Physics) आधारभूत पांच महाभूत, सांख्य दर्शन में प्राणिक विज्ञान (Biologycal Science) के प्रमुख तत्व बुद्धि, मन, चित्त, अहकार, ज्ञानेन्द्रियाँ तथा तन्मात्रायें आदि और वेदान्त दर्शन में आध्यात्मिक (Metaphysics) चेतना तत्व का विशेष गम्भीर और व्यापक विश्लेषण किया गया। पद्धति और प्रक्रिया का विशद् प्रतिपादन किया गया। इनमें एक-एक दर्शन के प्रत्येक भौतिक वैज्ञानिक तत्व पर गम्भीर और स्वतन्त्र खोज और चिन्तन करने की आवश्यकता है।             यास्क के बाद मध्यवर्ती काल में यह वैदिक विज्ञान लुप्त हो गया और आधुनिक काल में ऋषि दयानन्द ने इसे फिर से मूल रूप में समझा। उन्होंने घोषणा कि ‘‘वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है’’ और इसमें समूचा भौतिक विज्ञान मौजूद है। उन्होंने सभी वेदों का भाष्य करने का बीड़ा उठाया और भूमिका के रूप में ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका पुस्तक लिखी। इसमें उन्होंने न केवल यह घोषणा की अपितु स्थान-स्थान पर भौतिक विज्ञान के नमूने वेदमन्त्रों की व्याख्या करके प्रस्तुत किये। उन्होंने कहा कि आध्यात्मिक विज्ञान प्रथम कोटि का विज्ञान है और आत्मा और परमात्मा का भी विज्ञान है। भौतिक विज्ञान बिना आध्यात्मिक विज्ञान के अधूरा पगु और अप्रासगिक है। आधुनिक विज्ञान में यह उन्होंने नया अध्याय जोड़ा जो कोरे और नंगे भौतिक विज्ञान की पूर्ति की पराकाष्ठा ही नहीं अपितु विज्ञान जन्य अनेक कमियों और समस्याओं का एकमात्र समाधान भी है। वायुयान विज्ञान, तार विज्ञान, विद्युत् विज्ञान आदि अनेक भौतिक विज्ञानों के नमूने ऋषि दयानन्द ने वेदमऩ्त्रों की व्याख्या करके उस समय प्रस्तुत किये जब इन विज्ञानों का आधुनिक आविष्कार भी नहीं हुआ था। वेदों में भौतिक विज्ञान का उद्घोष ऋषि दयानन्द का आधुनिक युग का अद्वितीय नारा था।             

वेदों में विज्ञान के कुछ नमूने हम पेश करते हैं। ऋग्वेद का सर्वप्रथम प्रारम्भिक मन्त्र है ‘‘अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्’’।। इसी मन्त्र में ईळे क्रियावाची शब्द है। इसका अर्थ अन्य सभी वेद भाष्यकारों ने अशुद्ध किया है। स्वामी दयानन्द ने इसके वास्तविक अर्थ को निरूक्त के आधार पर किया है।            

 निघण्टु में वेद के पा्रणाणिक भाष्य पद्धति के व्याख्याता यास्क ने कहा है, ‘‘ईळिरध्येषणा कर्मा”, अर्थात् ईळ धातु अध्येषणार्थक है। अध्येषणा का अर्थ यास्क ने किया है ‘‘अध्येषणा सत्कार पूर्व को व्यापारः”, अर्थात् अध्येषणा का अर्थ है किसी वस्तु के गुणों और क्रियाओं को ठीक-ठीक समझ कर उसके उन गुणों के उपयोगार्थ उस वस्तु को उसी प्रकार के काम में लाना। यही अर्थ स्वामी दयानन्द ने भी किया है। यहां इस मन्त्र का देवता-वर्णनीय विषय-अग्नि है। अतः इसका अर्थ हुआ कि मैं (मनुष्य) अग्नि (भौतिक पदार्थ) को उसके गुण और क्रिया समझ कर उस का उसी प्रकार का उपयोग करूं। यहां अग्नि के कुछ गुण दिये हैं। यहां अग्नि को ‘देवम्’ कहा गया है, देव का अर्थ है प्रकाश और गति। (दिवु धातु द्युति और गति अर्थ वाली) स्पष्ट है कि अग्नि के दो गुण प्रकाश और गति का भौतिक विज्ञान में अत्यधिक महत्व है। अग्नि के लिये एक और शब्द ‘होतारम्’ का यहां प्रयोग है जिसका अर्थ है ध्वनि करने वाला (ह्नेञ् शब्दे) तथा वस्तुओं को खाने या नष्ट करने वाला (हू दानांदनयोः धातु) । अग्नि का विस्फोटक रूप और विध्वंसकारी ध्वनि सर्वविदित ही है। तथा अग्नि अपने में डाली गयी प्रत्येक वस्तु को खा डालती, जला डालती या नष्ट कर डालती है। इसी प्रथम मण्डल के प्रथम सूक्त का पांचवा मन्त्र हैः- अग्निर्होता कविक्रतु सत्यश्र्वित्रश्रवस्तमः। देवो देवे भिरागमत्।। यहां भौतिक अग्नि को दो औरू विशेषणों का प्रयोग है। एक है कविक्रतुः जिसका अर्थ पारदर्शक कर्म वाला (कविः, क्रान्तदर्शी भक्ति यास्क) (क्रतु कर्मपर्याय)। अग्नि पारदर्शक होने से, आधुनिक टेलिविजन, एक्सरे आदि के काम में लाया जाता है। दूसरा गुण है ‘चित्रश्रवस्तमः’, अग्नि अद्भुत तरीके  से ध्वनि का श्रवण करवाता है, यह गुण टेलिफोन आदि के कार्यों को सम्भव और सयोग आविष्कार का कारण बना है। हमने अग्नि आदि अनेक भौतिक पदार्थों के गुणों को भौतिक विज्ञान के सन्दर्भ में अपनी पुस्तक (Glorious Vision Of The Vedas)में वर्णित किया है, जो हौलेण्ड से छपी है, पाठक विस्तार से वहीं से देख सकते हैं।             

वेद में सविता और सूर्य इन दो भिन्न-भिन्न शब्दों से सूर्य का वर्णन मिलता है, यह क्यों? सविता शब्द की व्युत्पत्ति सर्जनार्थक षुञ् धातु से है अतः सविता का अर्थ है सर्जन करने वाला, सविता सूर्य का वह रूप है जो सर्जन करने वाला है अतः सविता के वर्णन में सूर्य के सभी सर्जनात्मक रूपों का वर्णन है। और सूर्य शब्द की व्युत्पत्ति है गत्यर्थक सृ धातु से जिसका अर्थ है गति देने वाला। अतः सूर्य के वर्णन में उन रूपों का समावेश है जो सूर्य के गतिप्रद रूप हैं। इसी प्रकार किरणों के १५ नाम निघण्टु में दिये हैं जो किरणों के भिन्न-भिन्न स्वरूपों के निदर्शक हैं। आधुनिक विज्ञान को अभी तक सात प्रकार की किरणें ही विदित हैं वेद की शेष किरणों पर शोध करके पता लगाने की आवश्यकता है। इसी प्रकार यास्क ने वैदिक निघुण्टु में पानी के एक सौ नाम दिये हैं जो पानी के भिन्न-भिन्न स्वरूपों के वाचक हैं। अभी तक पानी के रूप, पानी, बादल, भाप, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन आदि ही ज्ञात हैं, शेष पानी के कौन से रूप हैं? शोध करके पता लगाने की आवश्यकता है। वैदिक देवता मरूत और वायु आदि में भी मौलिक अन्तर हैं, ये एक ही भौतिक पदार्थ के पर्यायवाची शब्द नहीं हैं। इस प्रकार वैदिक भौतिक विज्ञान का बहुत व्यापक विश्नल क्षेय है जो खोज चाहता है। हम यहां केवल एक ही और वेद में भौतिक विज्ञान का आधुनिकतम उदाहरण देकर अपनी लेखनी को विराम देंगे।           
। आइन्सटाइन आधुनिक युग के महान्-वैज्ञानिक माने जाते हैं। उन्होंने देश और काल (Time & Space) के विषय में भौतिक विज्ञान के अद्भुत सिद्धान्तों का आविष्कार करके सृष्टि-विज्ञान की नयी व्याख्या प्रस्तुत की। आइन्सटाइन को अभी-अभी मात दी है स्टीफन्स हौकिग ने। स्टीफन हौकिग की आधुनिकतम वैज्ञानिक खोज यह है कि प्रलय काल में भी समय की सत्ता रहती है। यह तथ्य उन्होंने अपने आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धान्तों के आधार पर नये फामूर्ले पेश करके सिद्ध किया है। प्रलय-अवस्था के काल की गण्ना करने के फामूर्ले भी उन्होंने दिये हैं। इस अपनी वैज्ञानिक नयी खोज का बड़ा रोचक वर्णन उन्होंने अपनी पुस्तक ‘‘Story of Creation: From Big-Bang to Big Crunch” में बड़े विस्तार से किया है।             

यह वैज्ञानिक तथ्य वेद में पहले से ही वर्णित हैं। यह हमने खोजा है। ऋग्वेद के चार सूक्त अर्थात् मं. १०, सू. १२९, मं. १०, सूक्त १५४, मं. १०, सूक्म १९१, ये चार सूक्त भाववृत्तम् नाम से प्रसिद्ध हैं क्योंकि इन चारों सूक्तों में सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय अवस्था का वर्णन है, अतः ये चारों सूक्त ऋग्वेद के सृष्टि विज्ञान के सूक्त कहे जाते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि सृष्टि विज्ञान के विषय पर स्टीफन्स हौकिग की पुस्तक (Story of Creation) का नाम भी यही ‘भाववृत्तम्’बनता है। लगता है (Story of Creation) ‘भाववृत्तम्’ का ही अनुवाद हो यह अद्भुत संयोग ही कहा जा सकता है। अस्तु ऋग्वेद के प्रथम भाववृत्तम् सूक्त अर्थात् १०वें मण्डल का १२९वां सूक्त जो नासदीय सूक्त से भी जाना जाता है, इन शब्दों से प्रारम्भ होता हैः- नासदासीत्रो सदासीत्तदानीम्। मन्त्र के इस प्रथम चरण में सृष्टि के पहले प्रलय अवस्था का वर्णन है जिसमें कहा गया है कि प्रलय अवस्था में सत् और असत् देनों ही नहीं थे। यहां यह उल्लेखनीय है कि ‘सत्’ और असत् में दोनों ही वैदिक शब्द बड़े वैज्ञानिक तकनीकी अर्थ में प्रयुक्त हैं जिनकी व्याख्या का यहां अवकाश नहीं है। यहां हम यह बतलाना चाह रहे हैं कि उस प्रयावस्था में जिस अवस्था का वर्णन यहां ऋग्वेद में ‘सत्’ और ‘असत्’ के अभाव के रूप में किया है, एक पदार्थ का भाव स्पष्ट माना है और वह है काल, जिसे ‘तदानीम’ शब्द से विज्ञात घोषित किया है। ‘तदानीम्’ अर्थात् उस समय-जब ‘सत्’ और ‘असत’ भी नहीं थे, किन्तु समय (काल) था। स्टीफन्स हौकिग और आइन्स्टाइन की काल सम्बन्धी प्रमुख खोज को वेद ने एक ही सहज और सरल शब्द ‘तदानीम्’ से धाराशायी कर दिया। वैदिक विद्धानों का अभी तक समूचे भाववृत्त सूक्त की वैज्ञानिक व्याख्या तथा इस मन्त्र की इस व्याख्या पर ध्यान नहीं गया है। प्रलय अवस्था में काल की सत्ता और प्रलय अवस्था के काल की गणना जो एक अत्यन्त कठिन वैज्ञानिक चुनौती है, भारतीय दर्शनों में बड़े विस्तार से दी है। प्रलय अवस्था में सूर्य के अभाव में काल गणना का मापक दण्ड या साधन यन्त्र क्या हो यह बड़ी वैज्ञानिक समस्या है। किन्तु प्राचीन भारतीय ऋषियों ने इस गुत्थी को बड़े वैज्ञानिक कार्ल सागम ने इस तथ्य की पुष्टि को ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ में २६ जनवरी १९९७ को छपे अपने साक्षात्कार में बड़े प्रशंसनीय शब्दों में स्वीकारा है। यहां यह सब यहां लिखना सम्भव नहीं है। दो वर्ष पूर्व अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में हमने इस विषय पर शोधलेख पढ़ा था, जिसकी चर्चा स्थानीय समाचार पत्रों में खूब रही थी।             इस खोजपूर्ण तथ्य के उद्घाटन के साथ ही हम अपने लेख समाप्त करने से पहले २१वीं सदी और वैदिक विज्ञान की याद दिलाना चाहेंगे। २१वीं सदी पश्चिम के विज्ञान की आंधी और तूफान लेकर विश्व में आयेगी। वैज्ञानिक आविष्कार प्रकृति के रहस्यों को खोल कर रख देंगे। भौतिक विज्ञान की उपलब्धियां मानव को इतना साधन सम्पन्न बना देंगे कि जीवन के तौर तरीके सर्वथा बदल जायेंगे। समाज और राष्ट्र का एक नया भौतिक रूप उभर कर सामने आयेगा। आधुनिक Information Technology, रोबोट, शरीर विज्ञान की नयी खोजें, आने वाले समय का पूर्वाभास करवा रही हैं। ऐसे समय में आर्यसमाज की ही नहीं अपितु समूचे भारत राष्ट्र की परिचायक सत्ता का प्रश्न होगा। वेद और प्राचीन भारतीय भारतीय शास्त्रों का ज्ञान-विज्ञान पश्र्विम की इस आन्धी के साथ टक्कर लेने की पूरी क्षमता रखते हैं, देश की गरिमा को वैदिक ज्ञान-विज्ञान ही सर्वोपरि स्थान पर रख पायेगा, यही देश और समाज की सबसे महत्वपूर्ण धरोहर होगी जिस पर राष्ट्र गर्व करके पश्र्विम के भौतिक अन्धकार में सूर्य के समान विश्व को प्रकाश दिखला सकता है। परोपकारिणी सभा जो स्वामी दयानन्द जी महाराज की एकमात्र उत्तराधिकारिणी सभा है, का विशेष रूप सेयह दायित्व बन जाता है कि ऐसेसमय में वैदिक ज्ञान विज्ञान की खोज करके मानव मात्र का प्रकाश स्तम्भ बने, जिससे दयानन्द और वेद की पताका सर्वोपरि लहराती रहेगी। आधुनिक भौतिक विज्ञान में अपने आप को भूलते हुवे मानव को ज्ञान-विज्ञान की चरम पराकाष्ठा आध्यात्मिक चेतना की याद दिलाती रहे। जो अखण्ड समाप्ति के दश्ज्र्ञन की समूची वैज्ञानिक व्याख्या है।

सीता की अग्निपरीक्षा

रामायण में सीता की अग्निपरीक्षा

रामायण महाकाव्य में सीता अग्निपरीक्षा एक विवादित प्रसंग के रूप में जाना जाता है। इस प्रसंग के अनुसार राम द्वारा रावण को युद्ध में हराने के पश्चात लंका में सीता को स्वीकार करने से पहले सीता की अग्निपरीक्षा ली। अग्नि में प्रवेश करने के पश्चात भी सीता का शरीर भस्म नहीं हुआ। इससे सीता की पवित्रता सिद्ध हुई और श्री राम द्वारा सीता को पवित्र जानकार स्वीकार कर लिया गया।
सीता कि अग्निपरीक्षा के प्रसंग को लेकर अनेक लोगों के विभिन्न विभिन्न मत हैं। महिला अधिकारों के नाम पर दुकानदारी करने वाले इसे नारी जाति पर अत्याचार, शोषण, नारी के अपमान के रूप में देखते हैं। विधर्मी मत वाले इस प्रसंग के आधार पर हिन्दू धर्म को नारी शोषक के रूप में चित्रित करते हैं जिससे धर्मान्तरण को समर्थन मिले। अम्बेडकरवादी इसे मनुवाद, ब्राह्मणवाद के प्रतीक के रूप में उछालकर अपनी भड़ास निकालते हैं। जबकि हमारे कुछ भाई इसका श्री राम की महिमा और चमत्कार के रूप में गुणगान करते हैं। क्यूंकि उनके लिए श्री रामचन्द्र जी भगवान के अवतार है और भगवान के लिए कुछ भी संभव है।
इस लेख में सीता की अग्निपरीक्षा को तर्क की कसौटी पर पक्षपात रहित होकर परीक्षा करने पर ही हम अंतिम निष्कर्ष निकालेंगे।

वैज्ञानिक दृष्टि से भी सोचे तो यह संभव ही नहीं है कि आग मे जाने के बाद मानव शरीर बिना जले सकुशल बच जाये। क्या अग्नि किसी की पवित्रता की परीक्षा लेने में सक्षम है?  वैज्ञानिक तर्क के विरुद्ध सीता अग्निपरीक्षा को चमत्कार की संज्ञा देना मन बहलाने के समान हैं। केवल आस्था, विश्वास और श्रद्धा रूपी मान्यता से संसार नहीं चलता। किसी भी मान्यता को सत्य एवं ज्ञान से सिद्ध होने पर ही ग्रहण करने योग्य मानना चाहिए। इस आधार पर भी सीता की अग्निपरीक्षा एक मनगढ़त प्रसंग सिद्ध होता है।

सुंदरकाण्ड मे हनुमान जी सीता और रावण की बातचीत सुनते हैं। वहाँ पर सीता जी साफ साफ रावण को अपमानित करती हैं। यह जानकारी हनुमान जी ने श्रीराम राम को दी है। उसके बाद अग्नि परीक्षा का कोई औचित्य ही नहीं रहता।
युद्धकाण्ड सर्ग 115 ( कुछ संसकरणों मे सर्ग 118) का श्लोक 10 देखिए। 
इत्येवं वदतः श्रुत्वा सीता रामस्य तद्वचः |
मृगीवोत्फुल्लनयना बभूवाश्रुपरिप्लुता || 
श्रीराम जी की बातें सुनकर सीताजी की आंखे खुशी के आंसुओं से भर गई। सीता जी मिलने के बाद मुख्य कार्य अयोध्या मे भरत से मिलना था।      

 इसके बाद प्रक्षेपकार ने अगले 5 सर्गों मे लगातार मिलावट की है। अधिकांश असम्भव बाते लिखी हैं। जैसे श्रीराम जी सीता को कहते हैं कि मैंने युद्ध तुम्हारे लिए नहीं किया। तुम कहीं चली जाओ, फिर अग्नि परीक्षा और अग्निदेव का आना। उसके बाद स्वर्ग से दशरथ का आना। स्वर्ग के राजा इन्द्र का आना। इन्द्र का अमृत बरसाकर मृत वानरों को जीवित करना आदि। यह सभी असम्भव बाते इस घटना को मिलावटी सिद्ध करती हैं। 
  
वाल्मीकि रामायण के श्री रामचन्द्र महान व्यक्तित्व, मर्यादापुरुषोत्तम, ज्ञानी, वीर, महामानव, ज्येष्ठ-श्रेष्ठ आत्मा, परमात्मा का परम भक्त, धीर-वीर पुरुष, विजय के पश्चात् भी विनम्रता आदि गुणों से विभूषित, महानायक, सद्गृहस्थ तथा आदर्श महापुरुष थे। ऐसे महान व्यक्तित्व के महान गुणों के समक्ष सीता की अग्निपरीक्षा कर पवित्रता को निर्धारित करना एक बलात् थोपी गई, आरोपित, मिथ्या एवं अस्वीकार्य घटना प्रतीत होता हैं। श्री राम के महान व्यक्तित्व एवं आदर्श विचारों के समक्ष यह प्रसंग अत्यंत तुच्छ हैं। इससे सिद्ध हुआ कि यह प्रसंग बेमेल हैं।
 सुग्रीव की पत्नी रूमा जिसे बाली ने अपना बंधक बना कर अपने महलों में रखा हुआ था को बाली वध के पश्चात जब सुग्रीव स्वीकार कर सकता है। तो श्री राम हरण की हुई सीता को क्यों स्वीकार नहीं करते? श्री राम को आदर्श मानने वाले इस तर्क का कोई तोड़ नहीं खोज सकते।

वैदिक काल में नारी जाति का स्थान समाज में मध्य काल के समान निकृष्ट नहीं था। वैदिक काल में नारी वेदों की ऋषिकाओं से लेकर गार्गी, मैत्रयी के समान महान विदुषी थी, कैकयी के समान महान क्षत्राणी थी जो राजा दशरथ के साथ युद्ध में पराक्रम दिखाती थी, कौशलया के समान दैनिक अग्निहोत्री और वेदपाठी थी। सम्पूर्ण रामायण इस तथ्य को सिद्ध करता है कि रावण की अशोक वाटिका में बंदी सीता से रावण शक्तिशाली और समर्थ होते हुए भी सीता की इच्छा के विरुद्ध उसके निकट तक जाने का साहस न कर सका। यह उस काल की सामाजिक मर्यादा एवं नारी जाति की पत्नीव्रता शक्ति का उद्बोधक हैं। रामायण काल में सामाजिक मर्यादा का एक अन्य उदहारण इस तथ्य से भी मिलता है कि परनारी को अपहरण करने वाला रावण और परपुरुष की इच्छा करने वाली शूर्पनखा को उनके दुराचार के राक्षस कहा गया जबकि सभी प्रलोभनों से विरक्त एवं एक पत्नीव्रत श्री राम और शूर्पणखा के व्यभिचारी प्रस्ताव को ठुकराने वाले लक्ष्मण जी को देव तुल्य कहा गया हैं। ऐसे महान समाज में विदुषी एवं तपस्वी सीता का सत्य वचन ही उसकी पवित्रता को सिद्ध करने के लिए पूर्ण था। इस आधार पर भी सीता की अग्निपरीक्षा एक मनगढ़त प्रसंग सिद्ध होता है।
रामायण नारी जाति के सम्मान की भी शौर्य गाथा भी है। यह सन्देश देती है कि अगर एक अत्याचारी परनारी का हरण करता है तो चाहे सागर के ऊपर पुल भी बनाना पड़े, चाहे वर्षों तक जंगलों में भटकना पड़े, चाहे अपनी शक्ति कितनी भी सीमित क्यों न हो। मगर दृढ़ निश्चयी एवं सत्य मार्ग के पथिक नारी जाति के तिरस्कार का, अपमान का प्रतिशोध प्राण हरण कर ही लेते हैं। ऐसी महान गाथा में सीता की अग्निपरीक्षा जैसा अनमेल, अप्रासंगिक वर्णन प्रक्षिप्त या मिलावटी होने के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं।

महात्मा बुद्ध एवम् कर्मफल

महात्मा बुद्ध और वैदिक कर्मफल व्यवस्था



नमस्ते मित्रों। कुछ वामपंथी भीमसैनिक मानते हैं कि पुनर्जन्म, परलोक आदि सब गप्प है। शरीर नष्ट होने के बाद आत्मा खत्म हो जाता है। किसी को किसी कर्म का फल नहीं मिलता आदि आदि। परंतु भगवान बुद्ध वैदिक कर्म फल व्यवस्था मानते थे।

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतसमाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोsस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।
( यजुर्वेद ४०/२)

" शास्त्र नियमतित कर्म करते हुये सौ वर्षों तक जीने की इच्छा करनी चाहिये।इस प्रकार मनुष्य कर्म से लिप्त नहीं होता, इससे भिन्न कोई मार्ग नहीं है, जिससे कर्मबंधन से मुक्त हो सके।"

भगवद्गीता २/५०,५१ और ५/१० में भी यही लिखा है।

कर्मजं बुद्धि़युक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः
जन्मबंधविनिर्मुक्ताः पदं गच्छंत्यनायम्।।
( गीता २/५१)

"इस तरह ईश्वर भक्ति में लगे रहकर बड़े बड़े ऋषि मुनि या भक्तगण अपने आपको भौतिक कर्मों के फलों से मुक्त कर लेते हैं।इस प्रकार जीवन मरण के चक्र से छूटकर मुक्त पद को प्राप्त होते हैं"

पाठकगण चकित होंगे कि लगभग ऐसी ही कर्मफल व्यवस्था बुद्ध मानते थे।
देखिये, धम्मपद :-

१:- सदापुण्य कर्म करो व पाप का त्याग करो:-
अभित्थरेथ कल्याणे पापा चित्तं निवारये।
दन्धं हि करोतो पुञ्ञं पापस्मिं रमती मनो।।
( धम्मपद पापवग्गो क्रमिक श्लोक ११६)

"पुण्य कर्म करने की शीघ्रता करे।पाप कर्म से चित्त को निवृत्त करें। पुण्य कर्म करने में आलस्य करने वाले का मन पाप में रमने लगता है।"

वाणिजो व भयं वग्गं अप्पसत्थो महद्धनो।
विसं जीवितुकामो व पापानि परिवज्जये।।
( श्लोक १२३)

'जैसे जीने की इच्छा करने वाला व्यक्ति विष को त्याग देता है, उसी प्रकार पाप से दूर रहना चाहिये। "३:- पाप पुण्य उभयत्रः फलतः :-
इध सोचति पेच्च सोचति पापकारी उभयत्थ सोचति।
सो सोचति सो विहञ्ञति दिस्वा कम्म किलिट्ठमत्तनो।।
इध मोदति पेच्च मोदति कतपुञ्ञो उभयत्थ मोदति।
सो मोदति सो मपोदति दिस्वा कम्म विसुद्धिमत्तनो।।
( विनेबा भावे, धम्मपद ४/९,१०)

"पाप कर्म का कर्ता लोक परलोक दोनों में शोक करता है।अपना अशुभ कर्म देखकर तपड़पता है, शोक करता है।।पुण्यकर्म का कर्ता इस लोक में मुदित होकर परलोक में जाकर भी मुदित होता है। अपना पुण्य देखकर मुदित होता है।।"
इससे सिद्ध होता है कि बुद्ध भी आवागमन, लोक परलोक, पुनर्जन्म में विश्वास करते थे़ पर खेद है कि नवबौद्ध लोग इनमें कुछ श्रद्धा नहीं करते। वे पूर्णरूप से चार्वाक दर्शन का अनुसरण कर रहे हैं।

४:- कर्मफल अपरिहार्य है:-
न अंतलिक्खे न समुद्दमज्झे न पब्बतानं विवरं पविस्स।
न विज्जती सो जगति प्पदेसो यत्र ट्ठितो मुञ्चेय्य पापकम्मा।।
न अंतलिक्खे.....। न विज्जती सो जगति प्पदेसो यत्र ट्ठितं न प्पसहेथ मच्चु।।
( धम्मपद पापवग्गो क्रमिक श्लोक १२७,१२८)

" संसार में ऐसा कोई स्थान नहीं है- न अंतरिक्ष में, न समुद्र में, न पर्वतों में -जिसमें घुसकर पापकर्म और मृत्यु से बचा जा सकता है।"

यहां महाभारत के इस श्लोक का भाव भी ऐसा ही है:-
नाधर्मः कारणापेक्षी कर्तारमभिमुंचति। कर्ताखलु यथा कालं ततः समभिपद्यते॥ ( महा0 शान्ति0 अ॰ 298)

अधर्म किसी भी कारण की अपेक्षा से कर्ता को नहीं छोड़ता निश्चय रूप से करने वाला समयानुसार किये कर्म के फल को प्राप्त होता है। 8।

निष्कर्ष:- महात्मा बुद्ध की पुण्य पाप पर पूरी श्रद्धा थी।चाहे जहां भी चला जाये, मनुष्य कर्म का फल प्राप्त कर ही लेता है;उसका कर्म उसे नहीं छोड़ता। साथ ही, जो पुण्यकर्मा है, वो इस लोक व परलोक में भी पुण्यफल प्राप्त करता है । इससे सिद्ध है कि बुद्ध भी पुनर्जन्म, परलोक मानते थे; पर उनके अनुयायी नहीं मानते और वैदिक धर्म का मजाक उड़ाते हैं।

इसलिये, कर्मफल की व्यवस्था अकाट्य है:-
अवश्यं लभते कर्ता फलं पापस्य कर्मणः।
घोरं पर्थ्यागते काले द्रुमः पुष्पमिवार्तपम्॥
( बाल्मी0 अरण्य0 स॰ 29)

हे कल्याणी! यदि जो कुछ भी शुभ-अशुभ करता है करने वाला वही अपने किये कर्मों के फल को प्राप्त होता है। 6।
करने वाला अपने पाप कर्मों का फल घोर काल आने पर अवश्य प्राप्त करता है। जैसे मौसम आने पर वृक्ष फूलों को प्राप्त होते हैं। 8।

।।ओ३म्।।

अंबेडकर VS बुद्ध

महात्मा बुद्ध V/S भीमराव अम्बेडकर

(बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर प्रकाशित)

जिस प्रकार कोई सैनिक की वर्दी पहनकर सैनिक नहीं बन जाता जब तक कि वो नियमानुसार सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त नहीं कर लेता | ठीक उसी प्रकार यह कह देने मात्र से कोई बौद्ध नहीं हो जाता कि ‘मैं अब हिन्दू नहीं बौद्ध हूँ’ | क्योंकि बौद्ध बनने के लिए भगवान बुद्ध के उपदेशों को धारण करना अनिवार्य है | 

१४ अक्टूबर १९५६ को भीमराव अम्बेडकर ने यह घोषणा की कि मैं अब हिन्दू नहीं बौद्ध हूँ ; जबकि वास्तविकता यह है कि भीमराव जीवन भर बौद्ध नहीं बन पाए क्योंकि उनकी विचारधारा महात्मा बुद्ध से बिलकुल विपरीत रही | 

केवल यह कह देने मात्र से कि मैं हिन्दू नहीं बौद्ध हूँ भीमराव को बौद्ध नहीं माना जा सकता क्योंकि उन्होंने महात्मा बुद्ध के उपदेशों को व्यवहारिक जीवन में कभी धारण नहीं किया | भीमराव बौद्ध थे या नहीं यह समझने के लिए भीमराव अम्बेडकर के विचार और महात्मा बुद्ध के उपदेशों का तुलनात्मक अध्ययन करना आवश्यक है |

भीमराव अम्बेडकर के वेदों पर विचार ( निम्नलिखित उद्धरण अम्बेडकर वांग्मय से लिए हैं ) –

वेद बेकार की रचनाएँ हैं उन्हें पवित्र या संदेह से परे बताने में कोई तुक नहीं | ( खण्ड १३ प्र. १११ )

ऐसे वेद शास्त्रों के धर्म को निर्मूल करना अनिवार्य है | ( खण्ड १ प्र. १५ )
वेदों और शास्त्रों में डायनामाईट लगाना होगा , आपको श्रुति और स्मृति के धर्म को नष्ट करना ही चाहिए | ( खण्ड १ प्र. ९९ )

जहाँ तक नैतिकता का प्रश्न है ऋग्वेद में प्रायः कुछ है ही नहीं, न ही ऋग्वेद नैतिकता का आदर्श प्रस्तुत करता है | ( खण्ड ८ प्र. ४७, ५१ )

ऋग्वेद आदिम जीवन की प्रतिछाया है जिनमें जिज्ञासा अधिक है, भविष्य की कल्पना नहीं है | इनमें दुराचार अधिक गुण मुट्ठी भर हैं | ( खण्ड ८ प्र. ५१ )
अथर्ववेद मात्र जादू टोनो, इंद्रजाल और जड़ी बूटियों की विद्या है | इसका चौथाई जादू टोनों और इंद्रजाल से युक्त है | ( खण्ड ८ प्र. ६० )

वेदों में ऐसा कुछ नहीं है जिससे आध्यात्मिक अथवा नैतिक उत्थान का मार्ग प्रशस्त हो | ( खण्ड ८ प्र. ६२ )

महात्मा बुद्ध के वेदों पर उपदेश –

विद्वा च वेदेहि समेच्च धम्मम | न उच्चावच्चं गच्छति भूरिपज्जो || ( सुत्तनिपात श्लोक २९२ )

अर्थात महात्मा बुद्ध कहते हैं – जो विद्वान वेदों से धर्म का ज्ञान प्राप्त करता है, वह कभी विचलित नहीं होता |

विद्वा च सो वेदगु नरो इध भवाभावे संगम इमं विसज्जा | सो वीततन्हो अनिघो निरासो अतारि सो जाति जरान्ति ब्रूमिति || ( सुत्तनिपात श्लोक १०६० )

अर्थात वेद को जानने वाला विद्वान इस संसार में जन्म या मृत्यु में आसक्ति का परित्याग करके और तृष्णा तथा पापरहित होकर जन्म और वृद्धावस्थादि से पार हो जाता है ऐसा मैं कहता हूँ |

ने वेदगु दिठिया न मुतिया स मानं एति नहि तन्मयो सो | न कम्मुना नोपि सुतेन नेयो अनुपनीतो सो निवेसनूसू || ( सुत्तनिपात श्लोक ८४६ )

अर्थात वेद को जानने वाला सांसारिक दृष्टि और असत्य विचारादि से कभी अहंकार को प्राप्त नही होता | केवल कर्म और श्रवण आदि किसी से भी वह प्रेरित नहीं होता | वह किसी प्रकार के भ्रम में नहीं पड़ता |

यो वेदगु ज्ञानरतो सतीमा सम्बोधि पत्तो सरनम बहूनां | कालेन तं हि हव्यं पवेच्छे यो ब्राह्मणो पुण्यपेक्षो यजेथ || ( सुत्तनिपात श्लोक ५०३ )

अर्थात जो वेद को जानने वाला,ध्यानपरायण, उत्तम स्मृति वाला, ज्ञानी, बहुतों को शरण देने वाला हो जो पुण्य की कामना वाला यग्य करे वह उसी को भोजनादि खिलाये |

उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि भीमराव अम्बेडकर भगवान बुद्ध के उपदेशों के विरोधी थे | अब बुद्धजीवी यह विचार करें कि भगवान बुद्ध के उपदेशों का विरोध करने वाला व्यक्ति बौद्ध कैसे हो सकता है ??? 
भगवान बुद्ध के नाम से दलाली करने वालों ! अगर साहस है तो खुलकर कहो तुम किसके अनुयायी हो – वैदिक धर्म का पालन करने वाले भगवान बुद्ध के अथवा भीमराव अम्बेडकर के ???

वेदो मे स्त्री एवं शूद्र शिक्षा

किस वेद में स्त्रियों और शूद्रों के वेदाधिकार का निषेध है? 

हम बड़ी नम्रतापूर्वक इन धर्माचार्यों से पूछना चाहते हैं कि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद इन चारों संहिताओं में कहीं एक भी मन्त्र या मन्त्रांश ऐसा दिखा दीजिए जो महिलाओं और शूद्रों के वेदाध्ययन का निषेध करता हो??

महिला या पुरुष नहीं अपितु मानवमात्र को वेदाध्ययन का अधिकार है।  मध्यकाल में जब बहुत प्रकार के अनार्ष मिथ्या और साम्प्रदायिक मतवाद प्रचलित होने लगे तो कर्मकाण्ड के अनार्ष ग्रन्थों में 'स्त्री शूद्रौ न वेदमधीयाताम ' और 'स्त्री शूद्रद्विजबन्धूनाम् त्रयी न श्रुतिगोचरा' जैसी उक्तियाँ और विधान प्रचलित हुये । यह भारतीय संस्कृति और वैदिक परम्परा का अन्धकारपूर्ण युग था । वेद मनुष्य मात्र के लिये है । वेद परमेश्वर की वाणी हैं । जैसे पृथ्वी, जल, वायु, सूर्य, आकाश परमेश्वर निर्मित है और मनुष्यमात्र के लिये है, उसी प्रकार वेद भी परमेश्वर की वाणी होने के कारण मनुष्यमात्र के लिये है। 

प्रसिद्ध वेदोद्धारक स्वामी दयानन्द सरस्वती ने यजुर्वेद के २६वें अध्याय के दूसरे मन्त्र का प्रमाण देकर कहा -

“यथेमां वाचं कल्याणीमवदानि जनेभ्यः। 
ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्रायचार्याय च स्वाय चारणाय॥"

अर्थात् – परमेश्वर उपदेश करते हैं कि जैसे मैं सब मनुष्यों के लिये इस कल्याणी वेदवाणी का उपदेश करता हूँ वैसे सब मनुष्य किया करें । इसमें प्रजनेभ्यः शब्द तो है ही वैश्य, शूद्र और अति शूद्र आदि की गणना भी आ गई है । यह बड़ा सुस्पष्ट प्रमाण है । वेद के विद्वानों ने स्वामी दयानन्द सरस्वती के इस अद्भुत प्रमाण का हृदय खोल कर देश और विदेश में स्वागत किया । उस अन्धकार युग में यह वेद का सूर्यवत् प्रकाश था।

कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध वेद विद्वान् श्री सत्यव्रत सामश्रमी ने अपने अति सम्मानित ग्रन्थ "ऐतरेयालोचन'' में लिखा है कि स्वामी दयानन्द ने मनुष्य मात्र के वेदाधिकार में साक्षात् वेदमन्त्र का प्रमाण प्रस्तुत कर दिया है ।

विश्व विख्यात विचारक और समालोचक रोमा रोलाँ ने स्वामी दयानन्द को यह कहकर श्रद्धांजलि दी है कि सचमुच वह दिन भारत के लिये एक नव युग के निर्माण का दिन था जब स्वामी दयानन्द ने एक ब्राह्मण संन्यासी होकर भी सैकड़ों वर्षों से ताला में बन्द वेदों को मनुष्य मात्र के पढ़ने के अधिकार का प्रतिपादन किया।

स्वामी दयानन्द जी ने तो आर्य समाज के नियमों में एक नियम ही बना दिया कि वेद का पढ़ना पढ़ाना परम धर्म है। आज के दिन दर्जनों कन्या गुरुकुलों में हजारों छात्रायें वेद पढ़ रही हैं और सैकड़ों वेद विद्या की गम्भीर विदुषियाँ, आचार्याएँ वेद पढ़ा रही हैं।

प्राचीन काल में वेद विदुषी महिलाएँ - ऋषि मन्त्रद्रष्टा होते हैं, ऋषिकायें भी मन्त्रद्रष्टा होती हैं । लोपामुद्रा, गार्गी, मैत्रेयी इत्यादि कई इतिहास प्रसिद्ध ऋषिकायें हैं।सोलह ऋषिकाएँ ऋग्वेद में हैं। 

संस्कारों में स्त्रियाँ मन्त्र पाठ करती थीं “इमं मन्त्रं पत्नी पठेत्” ऐसा कर्मकाण्ड के ग्रन्थों में निर्देश है अतः स्त्री का मन्त्रपाठ स्वतः सिद्ध है।

कन्याओं का उपनयन - कन्याओं का भी उपनयन होता था और आज भी बहुत सारे वैदिक परिवारों में कन्याओं का उपनयन होता है और स्त्रियाँ यज्ञोपवीत पहनती हैं । सन्ध्या, अग्निहोत्र करती हैं वेदपाठ भी करती हैं । 

निर्णय सिन्धु तृतीय परिच्छेद में लिखा है -

"पुराकल्पेतु नारीणा नौञ्जीबन्धनमिष्यते। अध्ययनंच वेदानां भिक्षाचर्यं तथैव च॥" 
इसमें यज्ञोपवीत और वेदों का अध्ययन दोनों का विधान है।

हारीत संहिता में दो प्रकार की स्त्रियों का उल्लेख हैं - 
(१) ब्रह्मवादिनी 
(२) सद्योवधू ।

ब्रह्मवादिनी - तत्र ब्रह्मवादिनीनाम् उपनयनं अग्निबधनं वेदाध्ययनं स्वगृहे भिक्षा इति।

पराशर संहिता के अनुसार ब्रह्मवादिनी स्त्रियों का उपनयन होता है, वे अग्नि होत्र करती हैं, वेदाध्ययन करती हैं और अपने परिवार में भिक्षावृत्ति करती हैं।

सद्योबधू- ‘सद्योबधूनां तू उपस्थिते विवाहे कथंचित् उपनयनं कृत्वा विवाहः कार्यः।' - सद्योवधू वे स्त्रियाँ हैं जिनका विवाह के समय उपनयन करके विवाह कर दिया जाता है। जैसा आजकल पुरुषों के विवाह में कई जगह होता है।

वेद में उपनीता स्त्री - ऋग्वेद के मण्डल १० सूक्त १०९ मन्त्र ४ में लिखा है - “भीमा जाया ब्राह्मणस्योपनीता” यहाँ उपनीता जाया बहुत सुस्पष्ट है।

आचार्या और उपाध्याया वे स्त्रियाँ है, जो स्वयं पढ़ाती हैं नहीं तो आचार्य की स्त्री आचार्यानी और उपाध्याय की स्त्री उपाध्यायानी कहलाती हैं।

शंकर दिग्विजय में मण्डन मिश्र की पत्नी भारती देवी के विषय में लिखा है - 
'शास्त्रणि सर्वाणि षडवेदान् काव्यादिकान्वेत्ति यदत्र सर्वम्।' 
इसमें भारती देवी के षडङ्गवेदाध्ययन की बात सुस्पष्ट है।

माता कौशल्या का अग्निहोत्र- अग्निहोत्र में वेदमन्त्र बोले जाते हैं और कौशल्या अग्निहोत्र करती थी बाल्मीकि रामायण में अयोध्या काण्ड अः २०-१५ श्लोक में द्रष्टव्य है -

साक्षौमवसना हृष्टा नित्यं व्रतपरायणा। 
अग्नि जहोतिस्म तदा मन्त्रवत्कृतमज्जला।। 
कौशल्या रेशमी वस्त्र पहने हुए व्रत पारायण होकर प्रसन्न मुद्रा में मन्त्र पूर्वक अग्निहोत्र कर रही थी। इसी प्रकार अयोध्या काण्ड आ० २५ श्लोक ४६ में कौशल्या के यथाविधि स्वतिवाचन का भी वर्णन है।

माता सीता की सन्ध्या - लंका में महाबली हनुमान माता सीता को खोजते हुए अशोक वाटिका में गये किन्तु उन्हें माता सीता न मिली । हनुमान ने वहाँ एक पवित्र जल वाली नदी को देखा । हनुमान जी को निश्चय था कि यदि माता सीता यहाँ होगी तो सन्ध्या का समय आ गया है और व यहाँ सन्ध्या करने के लिये अवश्य आयेंगी। सुन्दरकाण्ड अ० १४, श्लोक ४९ में लिखा है -

सन्ध्याकालमनाः श्यामा ध्रुवमेष्यति जानकी।
नदींचेमांशुभजला सध्यार्थ वरवर्णिनी॥ 
अर्थात् वर वर्णिनी सीता इस शुभ जल वाली नदी पर सन्ध्या करने के निमित्ति अवश्य आयेंगी।

इस छोटे से प्रयास में हमने साक्षात् वेद वचन उद्धृत करके यह प्रमाण दे दिया है कि वेद मनुष्य मात्र के लिये हैं और 'धर्मजिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः' धर्म के लिये वेद परम प्रमाण हैं । 

किसी वेद संहिता में या वैदिक ऋषि कृत ग्रन्थ में स्त्रियों के वेद पढ़ने का निषेध नहीं है । वेदों की लोपामुद्रा, गार्गी, भारती आदि स्त्रियाँ विदुषी थीं और वेद पढ़ी थीं। आज भी वेद पढ़ती हैं ।
- प्रो० उमाकान्त उपाध्याय जी से साभार